शुक्रवार, 14 सितंबर 2012

2 आर्य समाज का राष्ट्र को योगदान

                                                                  || ओ३म् ||

संसार में आर्य समाज एकमात्र ऐसा संगठन है जिसके द्वारा धर्म, समाज, और राष्ट्र तीनों के लिए अभूतपूर्व कार्य किए गए हैं, इनमे से कुछ इस प्रकार है –

वेदों से परिचय – वेदों के संबंध में यह कहा जाता था कि वेद तो लुत्प हो गए, पाताल में चले गए। किन्तु महर्षि दयानन्द के प्रयास से पुनः वेदों का परिचय समाज को हुआ और आर्य समाज ने उसे देश ही नहीं अपितु विदेशों में भी पहुँचाने का कार्य किया। आज अनेक देशों में वेदो ऋचाएँ गूंज रही हैं, हजारों विद्वान आर्य समाज के माध्यम से विदेश गए और वे प्रचार कार्य कर रहे हैं। आर्य समाज कि यह समाज को अपने आप में एक बहुत बड़ी दें है।

सबको पढ़ने का अधिकार -  वेद के संबंध में एक और प्रतिबंध था। वेद स्त्री और शूद्र को पढ़ने, सुनने का अधिकार नहीं था। किन्तु आज आर्य समाज के प्रयास से हजारों महिलाओं ने वेद पढ़कर ज्ञान प्रपट किया और वे वेद कि विद्वान हैं। इसी प्रकार आज बिना किसी जाति भेद के कोई भी वेद पढ़ और सुन सकता है। यह आर्य समाज का ही देंन है।


जातिवाद का अन्त – आर्य समाज जन्म से जाति को नहीं मानता। समस्त मानव एक ही जाति के हैं। गुण कर्म के अनुसार वर्ण व्यवस्था को आर्य समाज मानता है। इसीलिए निम्न परिवारों में जन्म लेने वाले अनेक व्यक्ति भी आज गुरुकुलों में अध्यन कर रहे हैं। अनेक व्यक्ति शिक्षा के पश्चात आचार्य शास्त्री, पण्डित बनकर प्रचार कर रहे हैं।

स्त्री शिक्षा  - स्त्री को शिक्षा का अधिकार नहीं है, ऐसी मान्यता प्रचलित थी। महर्षि दयानन्द ने इसका खण्डन किया और सबसे पहला कन्या विद्यालय आर्य समाज की ओर से प्रारम्भ किया गया। आज अनेक कन्या गुरुकुल आर्य समाज के द्वारा संचालित किए जा रहे हैं।

विधवा विवाह – महर्षि दयानन्द के पूर्व विधवा समाज के लिए एक अपशगून समझी जाति थी। सतीप्रथा इसी का एक कारण था। आर्य समाज ने इस कुरीति का विरोध किया तथा विधवा विवाह को मान्यता दिलवाने का प्रयास किया।

छुआछूत का विरोध – आर्य समाज ने सबसे पहले जातिगत ऊँचनीच के भेदभाव को तोड़ने की पहल की। इस आधार पर बाद में कानून बनाया गया। अछूतोद्धार के सम्बन्ध में आर्य सन्यासी स्वामी श्रद्धानन्द ने अमृतसर काँग्रेस अधिवेशन में सबसे पहले यह प्रस्ताव रखा था जो पारित हुआ था।

देश की स्वतन्त्रता में योगदान – परतंत्र भारत को आजाद कराने में महर्षि दयानन्द को प्रथम पुरोधा कहा गया। सन् 1857 के समय से ही महर्षि ने अंग्रेज़ शासन के विरुद्ध जनजागरण प्रारम्भ कर दिया था। सन् 1870 में लाहौर में विदेशी कपड़ो की होली जलाई। स्टाम्प ड्यूटी व नमक के विरुद्ध आन्दोलन छेड़ा परिणाम स्वरूप आर्यसमाज के अनेक कार्यकर्ता व नेता स्वतन्त्रता संग्राम में देश को आजाद करवाने के लिए कूद पड़े।

स्वतन्त्रता आंदोलनकारियों के सर्वेक्षण के अनुसार स्वतन्त्रता के लिए 80 प्रतिशत व्यक्ति आर्यसमाज के माध्यम से आए थे। इसी बात को काँग्रेस के इतिहासकार डॉ॰ पट्टाभि सीतारमैया ने भी लिखी है। लाला लाजपतराय, पं॰ रामप्रसाद बिस्मिल, शहीदे आजम भगत सिंह, श्यामजी कृष्ण वर्मा, मदनलाल ढींगरा, वीर सावरकर, महात्मा गांधी के राजनैतिक गुरु गोपालकृष्ण गोखले आदि बहुत से नाम हैं।

गुरुकुल – सनातन धर्म की शिक्षा व संस्कृति के ज्ञान केंद्र गुरुकुल थे, प्रायः गुरुकुल परम्परा लुप्त हो चुकी थी। आर्य समाज ने पुनः उसे प्रारम्भ किया। आज सैकड़ों गुरुकुल देश व विदेश में हैं।

गौरक्षा अभियान – ब्रिटिश सरकार के समय में ही महर्षि दयानन्द ने गाय को राष्ट्रिय पशु घोषित करने व गोवध पर पाबन्दी लगाने का प्रयास प्रारम्भ कर दिया था। गौ करुणा निधि नामक पुस्तक लिखकर गौवंश के महत्व को बताया और गाय के अनेक लाभों को दर्शाया। महर्षि दयानन्द गौरक्षा को एक अत्यंत उपयोगी और राष्ट्र के लिए लाभदायक पशु मानकर उसकी रक्षा का सन्देश दिया। ब्रिटिश राज के उच्च अधिकारियों से चर्चा की, 3 करोड़ व्यक्तियों के हस्ताक्षर गौवध के विरोध में करवाने का का कार्य प्रारम्भ किया,। गौ हत्या के विरोध में कई आन्दोलन आर्य समाज ने किए। आज गौ रक्षा हेतु लाखो गायों का पालन आर्य समाज द्वारा संचालित गौशालाओं में हो रहा है।

हिन्दी को प्रोत्साहन – महर्षि दयानन्द सरस्वती ने राष्ट्र को एक सूत्र में बांधने के लिए एक भाषा को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा दिलाने के लिए सर्वप्रथम प्रयास किया। उसका प्रत्यक्ष उदाहरण है अहिन्दी भाषी प्रदेशों या विदेशों में जहाँ-जहाँ आर्य समाज हैं वहाँ हिन्दी का प्रचार है।

यज्ञ – सनातन धर्म में यज्ञ को बहुत महत्व दिया है। जीतने शुभ कर्म होते हैं उनमे यज्ञ अवश्य किया जाता है। यज्ञ शुद्ध पवित्र सामाग्री व वेद के मन्त्र बोलकर करने का विधान है। किन्तु यज्ञ का स्वरूप बिगाड़ दिया गया था। यज्ञ में हिंसा हो रही थी। बलि दी जाने लगी थी।

वेद मंत्रो के स्थान पर दोहे और श्लोकों से यज्ञ किया जाता था। यज्ञ का महत्व  भूल चुके थे। ऐसी स्थिति में यज्ञ के सनातन स्वरूप को पुनः आर्य समाज ने स्थापित किया, जन-जन तक उसका प्रचार किया और लाखों व्यक्ति नित्य हवन करने लगे। प्रत्येक आर्य समाज में जिनकी हजारों में संख्या है, सभी में यज्ञ करना आवश्यक है। इस प्रकार यज्ञ के स्वरूप और उसकी सही विधि व लाभों से आर्य समाज ने ही सबको अवगत करवाया।

शुद्धि संस्कार व सनातन धर्म रक्षा – सनातन धर्म से दूर हो गए अनेक हिंदुओं को पुनः शुद्धि कर सनातन धर्म में प्रवेश देने का कार्य आर्य समाज ने ही प्रारम्भ किया। इसी प्रकार अनेक भाई-बहन जो किसी अन्य संप्रदाय में जन्में यदि वे सनातन धर्म में आना चाहते थे, तो कोई व्यवस्था नहीं थी, किन्तु आर्य समाज ने उन्हे शुद्ध कर सनातन धर्म में दीक्षा दी, यह मार्ग आर्य समाज ने ही दिखाया। इससे करोड़ों व्यक्ति आज विधर्मी होने से बचे हैं। सनातन धर्म का प्रहरी आर्य समाज है। जब-जब सनातन धर्म पर कोई आक्षेप लगाए, महापुरुषों पर किसी ने कीचड़ उछाला तो ऐसे लोगों को आर्य समाज ने ही जवाब देकर चुप किया। हैदराबाद निजाम ने सांप्रदायिक कट्टरता के कारण हिन्दू मान्यताओं पर 16 प्रतिबंध लगाए थे जिनमें – धार्मिक, पारिवारिक, सामाजिक रीतिरिवाज सम्मिलित थे। सन् 1937 में पंद्रह हजार से अधिक आर्य व उसके सहयोगी जेल गए तीव्र आंदोलन किया, कई शहीद हो गए।

निजाम ने घबराकर सारी पाबन्दियाँ उठा ली, जिन व्यक्तियों ने आर्य समाज के द्वारा चलाये आंदोलन में भाग लिया, कारागार गए उन्हे भारत शासन द्वारा स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों की भांति सम्मान देकर पेंशन दी जा रही है।

सन् 1983 में दक्षिण भारत मीनाक्षीपुरम में पूरे गाँव को मुस्लिम बना दिया गया था। शिव मंदिर को मस्जिद बना दिया गया था। सम्पूर्ण भारत से आर्यसमाज के द्वारा आंदोलन किया गया और वहाँ जाकर हजारों आर्य समाजियों ने शुद्धि हेतु प्रयास किया और पुनः सनातन धर्म में सभी को दीक्षित किया, मंदिर की पुनः स्थापना की।

कश्मीर में जब हिंदुओं के मंदिर तोड़ना प्रारम्भ हुआ तो उनकी ओर से आर्य समाज ने प्रयास किया और शासन से 10 करोड़ का मुआवजा दिलवाया।

ऐसे अनेक कार्य हैं, जिनमें आर्य समाज सनातन धर्म की रक्षा के लिए आगे आया और संघर्ष किया बलिदान भी दिया।

इस प्रकार आर्य समाज मानव मात्र की उन्नति करने वाला संगठन है, जिसका उद्देश्य शारीरिक, आत्मिक व सामाजिक उन्नति करना है। वह अपनी ही उन्नति से संतुष्ट न रहकर सबकी उन्नति में अपनी उन्नति मानता है।

इसलिए आर्य समाज को जो मानव मात्र की उन्नति के लिए, सनातन संस्कृति के लिए प्र्यत्नरत है उसके सहयोगी बनें। परंतु आर्य समाज के प्रति भ्रम होने से कुछ ऐसा है –

                                        जिन्हें फिक्र है ज़ख्म की, उन्हे कातिल समझते हैं।

                                          फिर तो, यो ज़ख्म कभी ठीक हो नहीं सकता ॥

2 टिप्‍पणियां:

  1. आर्य समाज का जो वैचारिक प्रभाव पड़ा है वो ये है के स्वामीजी के बाद मानो भारतीय विद्वानों में होड सी लग गयी वेदों को देखने की , वरना जिस समय स्वामीजी हुये वेद लुप्त मान लिए गए थे और उनके लुप्त होने को भी कलियुग का प्रभाव कहा जाता था , याने रवैय्या ऐसा था के भाई ये तो होना ही था ...अब जब कल्कि आएंगे तो ये काम उन्ही का है , हालाँकि कल्कि लुप्त हो चुके वेदको ज़मीन से निकालेंगे खोज के या असमानों से टपकाएंगे इसपर कोई कुछ न कहता था ..........किन्तु स्वामी दयानंद के बाद हा देखते हैं के भाष्य की ओर पुनः लोगों का ध्यान गया ....पौराणिक मूढता को जिस कदर नींव से हिलाया है स्वामीजी ने वैसा पहले कभी नहीं हुआ , हमें पढ़ाया जाता है ब्रह्म समाज या प्रार्थना समाज के बारे में किन्तु सच तो ये है के ये महज़ कुछ सवर्ण रईसों के बैठक खानों और ठाकुर दालानों के बीच पनपने वाले और वहीँ अंततः दफन हो जाने वाले संगठन मात्र थे , जनमानस को झकझोरने वाले और गांव गांव में अलख जगाने का सामर्थ्य इनमें न था , किन्तु दूसरी ओर स्वामीजी ने कभी भी मध्यभारत का त्याग नहीं किया , वे लगातार बहुत बड़ी आबादी में संचार करते रहे ..........दुखद है के आज औसत श्रेणी के " समाज सुधारकों " की फेहरिस्त में हमें " ऋषि तुल्य " व्यक्तित्व का नाम पढ़ाया जाता है ..

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